किसी भी नेता को भाजपा से निष्कासित करना नेतृत्व का विशेषाधिकार होता है लेकिन जिन असाधारण परिस्थितियों में भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता का पार्टी से निलंबन हुआ है, इसको लेकर प्रश्नचिन्ह उठने लाजिमी है। प्रदेश प्रवक्ता ने जिस तरह से झुंझुनू जिला भाजपा अध्यक्ष के मनोनयन को लेकर सवाल खड़े किए शायद प्रदेश नेतृत्व को वह सवाल नागवार गुजरे। उनका आरोप था कि जिलाध्यक्ष पेराशूट से उतारा गया क्योंकि उनके अनुसार उनका नाम पैनल में भी नहीं था। इसके विपरीत जिस तरह से जिलाध्यक्ष बनने की योग्यता के मापदंड होने चाहिए, वह भी पूरे नहीं हो रहे थे। भाजपा जिस तरह से ओला परिवार पर वंशानुगत राजनीति का आरोप लगाती रही है, वहीं परम्परा का निर्वहन भाजपा जिलाध्यक्ष के मनोनयन को लेकर किया गया है। इस मनोनयन से भाजपा ने कांग्रेस पर वंशवाद की राजनीति करने के आरोप लगाने का अधिकार खो दिया है। भाजपा एक व्यक्ति एक पद का आलाप करती रही है लेकिन जिलाध्यक्ष के मनोनयन में इस नियम को भी दरकिनार किया गया है। इसको लेकर प्रदेश प्रवक्ता काफी मुखर हो गये थे और सार्वजनिक मंचों से प्रदेश नेतृत्व को ललकार रहे थे। यदि नवनियुक्त जिलाध्यक्ष का नाम पैनल में ही नही था, जैसा कि दावा किया जा रहा है तो यहां भी शायद पर्ची चली होगी, जैसे मुख्यमंत्री पद पर भजन लाल शर्मा के मनोनयन को लेकर कांग्रेस भजन लाल शर्मा को पर्ची वाला मुख्यमंत्री से संबोधन करती रही है। नये जिलाध्यक्ष के मनोनयन को लेकर कहीं न कहीं उन भाजपा कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव होने के साथ ही उनके मनोबल में गिरावट आई होगी, जिनको संगठन में पर्याप्त अनुभव होने के बावजूद उनकी दावेदारी को दरकिनार किया गया। जब नवनियुक्त जिलाध्यक्ष के मनोनयन पर ही आक्रोश के स्वर देखने को मिल रहे हैं, जिसके चलते प्रदेश प्रवक्ता को भाजपा प्रदेश नेतृत्व को उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा तो कहीं न कहीं वही आक्रोश उस समय भी देखने को मिले, जब नवनियुक्त जिलाध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी की घोषणा करें। वैसे झुंझुनूं जिले में भाजपा की गुटबाजी सर्वविदित है और यह तो आने वाला समय ही निर्धारित करेगा कि इस गुटबाजी का ज्वालामुखी फटेगा या नवनियुक्त जिलाध्यक्ष सभी को साधने में सफल होगी।
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